AHSEC Class 12 Advance Hindi Solution
[Adv. Hindi Chapter: 2 Jisne dukh pala ho]
जिसने दुख पाला हो
- महादेवी वर्मा
1. 'प्रिय ! जिसने दुख पाला हो।
जिन प्राणों से लिपटी हो।
पीड़ा सुरभिल चन्दन सी,
तूफानों की छाया हो,
जिसको प्रिय-आलिंगन सी,
जिसको जीवन की हारें,
हो जय के अभिनन्दन सी,
वर दो यह मेरा आँसू उस के उर की याला हो।'
शब्दार्थ :- पाला हो- पालन-पोषण करना, सुरभित सुगन्धित, आलिंगन - गले लगाना, हारें पराजय, अभिनन्दन स्वागत, वर दो वरदान दीजिए, उर की माला • हृदय की हार ।
उ.- प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी साहित्य की छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता 'जिसने दुख पाला हो' से ली गई हैं। प्रस्तुत कविता हगारी पाठ्य पुस्तक 'हिन्दी साहित्य संकलन' में संकलित है। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में छायावाद की सफल कवयित्री हैं। इनकी कविता की मुख्य भूमिका रहस्यवाद है। विरह और पीड़ा को वाणी देने में महादेवी अप्रतिम हैं। इनके गीत सही अर्थों में प्रगीत हैं। महादेवी की यह टेक उचित है-
अपने इस सूनेपन की मैं हूँ रानी मतवाली।
प्राणों का दीप जलाकर करती रहती दीवाली ।।
कवयित्री के अलावा महादेवी एक कुशल लेखिका हैं। इनके संस्मरणात्मक शब्दचित्र हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि हैं।
प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने दुख और पीड़ा को जीवन के लिए अति आवश्यक माना है। पीड़ा उनके जीवन का सार है।
व्याख्या- कवयित्री कहती हैं, हे प्रिय। में अपने आँसुओं का हार उस व्यक्ति को पहनाना चाहूँगी, जिसने जीवन पर्यन्त दुख और पीड़ा को सहर्ष गले लगाया है। मेरे लिए वह व्यक्ति प्रिय है जिसने अपने जीवन में दुखों को उसी तरह कष्ट सहकर पाला-पोसा है जैसे कोई माँ अपनी संतान का पालन-पोषण करती है।
जो व्यक्ति दुख-दर्द को अपने गले से लगाए रखता है, जैसे वह सुगंधित चंदन को प्राणों से लिपटाए हुए हो अर्थात् जिसके लिए दुख और पीड़ा ही जिन्दगी हो, वही मेरी इन आँसुओं से पिरोई माला को धारण करने का वास्तविक हकदार है। जिस आदमी ने अपना जीवन कष्टों में गुजारा है, जिसको विपत्ति रुपी तुफान आलिंगनों की तरह मदमस्त बनाता हो, में उसी को अपने आँसुओं के हार से सुशोभित करना चाहूँगी। जो जीवन में मिलने वाले पराजयों को विजय के कर कमलों जैसा अपनाए वही मेरा स्तुत्य बन सकता है। हे प्रिय। मुझे ऐसा वरदान दो कि मैं अपनी आँखों से निकलने वाले आँसुओं की माला उस दुखी, पीड़ित एवं साहसिक व्यक्ति को अपने कर कमलों से पहनाकर अपने को धन्य समसूं।
विशेष- (1) महादेवी ने दुख और पीड़ा को जीवन के लिए आवश्यक मांना है।
(ii) उपमा अलंकार का सुन्दर और सटीक प्रयोग हुआ है।
(iii) भाषा तत्सम् शब्दावली से पूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
2. 'जो उजियाला देता हो
जल-जल अपनी ज्वाला में,
अपना सुख बाँट दिया हो
जिसने इस मधुशाला में,
हँस हालाहल ढाला हो
अपनी मधु की हाला में,
मेरी साधों से निर्मित उन अधरों का प्याला हो।'
शब्दार्थ : उजियाला- प्रकाश, ज्वाला- आग (दुख की आग), मधुशाला मदिरालय, हालाहल -जहर, मधु की हाला- सुख रुपी मदिरा, साधों - इच्छाओं, निर्मित • बनी हुई, अघरों - होठों।
उ- प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी साहित्य की छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता 'जिसने दुख पाला हो' से ली गई हैं। प्रस्तुत कविता हगारी पाठ्य पुस्तक 'हिन्दी साहित्य संकलन' में संकलित है। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में छायावाद की सफल कवयित्री हैं। इनकी कविता की मुख्य भूमिका रहस्यवाद है। विरह और पीड़ा को वाणी देने में महादेवी अप्रतिम हैं। इनके गीत सही अर्थों में प्रगीत हैं। महादेवी की यह टेक उचित है-
कवयित्री के अलावा महादेवी एक कुशल लेखिका हैं। इनके संस्मरणात्मक शब्दचित्र हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि हैं।
प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने दुख और पीड़ा को जीवन के लिए अति आवश्यक माना है। पीड़ा उनके जीवन का सार है।
व्याख्या- महादेवी जी कहती हैं कि वे व्यक्ति जिन्होंने अपने दुख की ज्वाला में खुद जलते हुए दूसरों को प्रकाश दिया हो, मेरे लिए वंदनीय हैं। वह व्यक्ति जिसने जीवन रुपी इस मदिरालय में अपना सुख दूसरों को बाँट दिया है और स्वयं हँसते हुए हालाहल जहर पी लिया है, मानवता का सच्चा सेवक है। स्वयं दुख झेलकर जो दूसरों के जीवन में सुख, माधुर्य एवं आनन्द का संचार कर सकता है, वह वंदनीय है। जो दूसरों की पीड़ा एवं दुख रुपी जहर को खुद पी सकता है, मेरी खुशियों, इच्छाओं से उसके अधर रुपी प्याले बने, वही मेरे लिए वंदनीय है।
विशेष- (i) महादेवी ने दुख और पीड़ा को गले लगाने को जीवन का ध्येय बताया है।
(ii) रुपक और उपमा अलंकारों का सुन्दर और सटीक प्रयोग हुआ है।
(iii) भाषा, तत्सम शब्दावली से पूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
पाठ प्रश्नोत्तर
1. कवयित्री वर्माजी के काव्यों की भावभूमि कैसी है ?
उ.- कवयित्री महादेवी वर्मा जी के काव्यों में वेदना और पीड़ा की प्रधानता है। कवयित्री ने विरह वेदना को गले लगाया है और इसी में जीवन की सच्चाइयों को प्रस्तुत किया है-
'पिघलती आँखों के संदेश
आँसू के वे पारावार,
भग्न आशाओं के अवशेष
जली अभिलाशाओं के क्षार ।'
कवयित्री के काव्यों की भावभूमि छायावाद और रहस्यवाद से भी परिपूर्ण है।
2. प्रस्तुत कविता में 'मधुशाला' शब्द का अर्थ क्या है ?
उ.- मधुशाला का शाब्दिक अर्थ है 'मदिरालय' जहाँ लोग मद (मदिरा) पानकर मस्ती से झूम उठते हैं। यहाँ मधुशाला का प्रयोग प्रतीक रुप में हुआ है जो मनुष्य के जीवन के लिए आया है। मनुष्य का जीवन उस मधुशाला के समान है जो मस्ती और आनन्द से भरा हुआ है।
3. 'मेरी साधों से निर्मित उन अधरों का प्याला' से कवयित्री क्या कहना चाहती है ?
उ.- महादेवी अपने होठों को वह प्याला बनाना चाहती हैं जो दूसरों के जीवन के जहर को सहर्ष धारण करे और उसे पी जाय। महादेवी दूसरों का दुख खुद लेकर उन्हें सुखी बनाना चाहती हैं।
4. 'जिसने दुख पाला हो' कविता का सारांश लिखिए।
उ.- महादेवी विरह और पीड़ा की कवयित्री हैं। छायावादी कवयित्री ने अपनी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को परिपूरित किया है। रहस्यवाद की सफल कवयित्री ने दुख-दर्द को जीवन का अभिन्न अंग माना है।
प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने वैसे व्यक्ति को महान् माना है जिसने दुख और पीड़ा को सहर्ष गले लगाकर अपने को धन्य किया है। ऐसा व्यक्ति कवयित्री के लिए बंदनीय • और आराध्य है। कवयित्री दुख को गले लगाने वाले व्यक्ति को अपने आँसू का हार पहनाकर अपने को धन्य करना चाहती है। ऐसा व्यक्ति धन्य है जिसने दुख और पीड़ा को ऐसा सजाया और संवारा है जैसा कोई व्यक्ति अपनी संतान को सजाता और संवारता है। ऐसा व्यक्ति धन्य है जो दुख और पीड़ा को अपने से ऐसे लिपटाये रहता है, जैसे चन्दन को लेप किया हो। जिस व्यक्ति ने पीड़ा और वेदना को अपने में समाइत किया है, विपत्तियों का आलिंगन किया है, उस व्यक्ति को कवयित्री अपने आँसुओं के हार से सुसज्जित करना चाहती है। कवयित्री को वह व्यक्ति प्रिय है जो दुख में भी सदा प्रसत्र रहता है।
ऐसे व्यक्ति जो स्वयं पीड़ा और वेदना में रहते हुए दूसरों के जीवन को आनन्दित करते हैं, अपने को जलाकर दूसरों के जीवन पथ को आलोकित करते हैं, वे वंदनाय हैं। जो व्यक्ति जीवन रुपी इस मदिरालय में स्वयं विपन्न रहकर दूसरों को सुख देते हैं, वे अभिनन्दन के योग्य हैं। ऐसे लोग दुख रुपी जहर को हँसते-हँसते पी जाते हैं और दूसरों का कल्याण करते हैं। कवयित्री कहती है कि उसके अधर ऐसे व्यक्ति के लिए मस्त करने वाला प्याला बने। कवयित्री उस व्यक्ति के लिए अपना जीवन न्योछावर करना चाहती है जो दूसरों को सुख देने के लिए स्वयं दुख और पीड़ा सहर्ष झेलता है।
5. व्याख्या कीजिए-
'जो उजियारा—----------------------प्याला हो।
उ.-
उ- प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी साहित्य की छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता 'जिसने दुख पाला हो' से ली गई हैं। प्रस्तुत कविता हगारी पाठ्य पुस्तक 'हिन्दी साहित्य संकलन' में संकलित है। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में छायावाद की सफल कवयित्री हैं। इनकी कविता की मुख्य भूमिका रहस्यवाद है। विरह और पीड़ा को वाणी देने में महादेवी अप्रतिम हैं। इनके गीत सही अर्थों में प्रगीत हैं। महादेवी की यह टेक उचित है-
अपने इस सूनेपन की मैं हूँ रानी मतवाली।
प्राणों का दीप जलाकर करती रहती दीवाली ।।
कवयित्री के अलावा महादेवी एक कुशल लेखिका हैं। इनके संस्मरणात्मक शब्दचित्र हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि हैं।
प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने दुख और पीड़ा को जीवन के लिए अति आवश्यक माना है। पीड़ा उनके जीवन का सार है।
व्याख्या- महादेवी जी कहती हैं कि वे व्यक्ति जिन्होंने अपने दुख की ज्वाला में खुद जलते हुए दूसरों को प्रकाश दिया हो, मेरे लिए वंदनीय हैं। वह व्यक्ति जिसने जीवन रुपी इस मदिरालय में अपना सुख दूसरों को बाँट दिया है और स्वयं हँसते हुए हालाहल जहर पी लिया है, मानवता का सच्चा सेवक है। स्वयं दुख झेलकर जो दूसरों के जीवन में सुख, माधुर्य एवं आनन्द का संचार कर सकता है, वह वंदनीय है। जो दूसरों की पीड़ा एवं दुख रुपी जहर को खुद पी सकता है, मेरी खुशियों, इच्छाओं से उसके अधर रुपी प्याले बने, वही मेरे लिए वंदनीय है।
विशेष- (i) महादेवी ने दुख और पीड़ा को गले लगाने को जीवन का ध्येय बताया है।
(ii) रुपक और उपमा अलंकारों का सुन्दर और सटीक प्रयोग हुआ है।
(iii) भाषा, तत्सम शब्दावली से पूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
अतिरिक्त प्रश्नोत्तर:
1. महादेवी वर्मा का जन्म कहाँ हुआ था ?
उ.- महादेवी वर्मा का जन्म फरुखाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।
2. महादेवी वर्मा का जन्म कब हुआ था ?
उ.- महादेवी वर्मा का जन्म सन् 1907 ई. में हुआ था।
3. महादेवी की मुख्य काव्य कृतियों का नाम लिखें।
उ.- महादेवी की मुख्य काव्य कृतियाँ हैं- नीरजा, नीहार, रश्मि, सांध्य-गीत, यामा, दीपशिखा आदि।
4. महादेवी को हिन्दी साहित्य में क्या कहा जाता है ?
उ.- महादेवी वर्मा को हिन्दी साहित्य में- आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है।
5. महादेवी वर्मा की पहली कविता कब और कहाँ प्रकाशित हुई थी ?
उ.- महादेवी वर्मा की पहली कविता सन् 1924 ई. में 'चाँद' में प्रकाशित हुई थी।
6. महादेवी के काव्य का प्रमुख तत्व क्या है ?
उ.- महादेवी वर्मा के काव्य का प्रमुख तत्व वेदना का आनन्द, वेदना का सौन्दर्य और वेदना के लिए आत्म सम्र्पण है।
2. महादेवी वर्मा का साहित्यिक जीवन परिचय दें।
उ.- महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद में सन् 1907 ई. में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में हुई। संस्कृत में एम. ए. की परीक्षा पास कर वे प्रयाग महिला विद्यापीठ में अध्यापिका बनी और बाद में वहाँ की प्राचार्य बनी। उनका विवाद नो वर्ष की उम्र में डॉ. स्वरुप नारायण वर्मा से हो गया था, पर इन्हें दाम्पत्य जीवन कभी स्वीकार नहीं हुआ। इनका जीवन प्रारम्भ से ही सती-साध्वी और साधिका का रहा। इसलिए ये महाश्वेता के नाम से जानी जाती हैं।
महादेवी वर्मा का कविता के प्रति अनुराग बचपन से ही था। उनकी पहली कविता सन् 1924 ई. में 'चाँद' में प्रकाशित हुई। कविता के अतिरिक्त महादेवी ने गद्य में रचनाएँ की हैं। इनकी प्रमुख प्रकाशित मौलिक कृतियों के नाम इस प्रकार हैं-
कविता संग्रह- नीहार, रश्मि, नीरजा, सान्ध्यगीत, दीप-शिखा।
संस्मरणात्मक शब्द चित्र- अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी ।
निबन्ध संग्रह- श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी का विवेचनात्मक गद्य।
महादेवी छायावाद युग की सफल कवयित्री हैं। इनकी कविता की मुख्य भूमिका रहस्यवाद है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से इनके गीत मीराबाई और कबीर की कविता के निकट हैं। कवयित्री ने उसे सर्वधा मौलिक रुप में उपस्थित किया है। जीवात्मा और परमात्मा के प्रणय, जन्म विरह की भूमिकाओं में मार्मिकता का अंकन, महादेवी के गीतों की विशेषता है। इनका भाव पक्ष सीमित किन्तु गम्भीर और कला पक्ष पौढ़ है। विरह और पीड़ा को वाणी देने में महादेवी अप्रतिम हैं। इनके गीत सही अर्थों में प्रगीत हैं। महादेवी की यह टेक उचित है- '
अपने इस सूनेपन की मैं हूँ रानी मतवाली।
प्राणों का दीप जलाकर करती रहती दीवाली ।।'
कवयित्री के अतिरिक्त महादेवी एक कुशल गद्य लेखिका हैं। इनके संस्मरणात्मक शब्दचित्र हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि हैं। उनमें महादेवी की व्यापक सहानुभूति, असीम करुणा और निश्चल आत्मीयता का प्रकाशन हुआ है। उनके कुछ निबन्ध नारी समस्याओं से सम्बन्धित हैं। कभी-कभी यह भी आभास होने लगता है कि कविता की अपेक्षा उनके गद्य का महत्व अधिक है।
3. छायावाद की कवयित्री के रुप में महादेवी वर्मा के काव्य का मूल्यांकन कीजिए।
उ.- महादेवी का छायावादी काव्य सौष्ठव- आधुनिक हिन्दी काव्य के क्षेत्र में द्विवेदी युग अपनी नैतिकतावादी एवं सुधारवादी प्रवृत्तियों के लिए प्रसिद्ध है। उस युग में हिन्दी के कवियों ने भी जो कविताएँ लिखी थीं, उनमें से अधिकांश कविताओं में सुधारवादी, उपदेशात्मक प्रवृत्ति विद्यमान थी और वे कविताएँ प्रायः इतिवृत्तात्मक शैली में लिखी जाती धीं। यह प्रवृत्ति कुछ दिनों तक बड़ी तीव्र गति से चलती रही, किन्तु इस इतिवृत्तात्मक एवं उपदेशात्मक प्रवृति के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई और इस प्रतिक्रिया के फलस्वरुप एक ऐसी काव्य धारा का श्री गणेश हुआ जिसमें तत्कालीन प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह का स्वर विद्यमान था। यह नूतन काव्य-धारा मूलतः मानवीय एवं सांस्कृतिक धरातल पर स्थित थी। इस कविता ने अपनी पूर्ववर्ती काव्य-धारा के प्रकृति-निरपेक्ष जग के मिध्यात्व के सिद्धान्त का प्रबल विरोध किया था और मानव जीवन सौन्दर्य तथा प्रकृति को आत्मा का अभिन्न सचेतन रुप मानकर चेतनता को सर्वत्र विलास करते हुए अंकित किया था। यह नूतन काव्य-धारा 'छायावाद' के नाम से प्रसिद्ध हुयी।
महादेवी के काव्य में छायावाद-
1. वैयक्तिकता- स्वछन्दतावादी होना छायावादी व रहस्यवादी कवियों पर एक आरोप किया जाता है। जीवन व साहित्य दोनों ही में जो परम्परागत रुढ़ियाँ हैं उन्हें अस्वीकार कर नये रुप व नयी शैली द्वारा प्रस्तुत करना ही स्वछन्दतावाद है। महादेवी जी भी इसकी अपवाद नहीं हैं। महादेवी जी गतिशील जीवन पर अत्यधिक विश्वास करती हैं, अतः इन्होंने काव्य के बन्धनों को भी स्वीकार न करते हुए नवीन रुप में उसे प्रस्तुत किया। इसी कारण इनकी कवितायें अत्यधिक वैयक्तिक और एकान्त अर्न्तमुखी बन गयीं। उनकी
इस वैयक्तिकता को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-
'कितनी बीती पतझरें, कितने मधु के दिन आये। मेरी मधुमय पीड़ा को, कोई पर ढूढ़ न पाये।।'
निम्न पंक्तियों में भी इनकी वैयक्तिकता की ही छाप है-
'मेरे जीवन की जागृति, देख फिर भूल न जाना,
जो वे सपने बन आवे, तुम चिर निद्रा बन जाना।
पूर्ण रुप से देखने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि कहीं-कहीं उनकी कविता इतनी वैयक्तिकता से युक्त हो गयी है कि केवल महादेवी जी ही 'मैं' के रुप में उसमें दिखाई पड़ती हैं।
2. वेदना व निराशा- महादेवी जी की विरह या वेदना किसी सीमित स्थान तक नहीं अपितु असीमित है। उसकी सीमा का किसी को भी ज्ञान नहीं है। प्रिय जितना विराट है उतना ही विराट उनका विरह भी है। उनको अपने प्रियतम से बिछड़े अनन्त काल हो चुके हैं। उन्हें अपने प्रियतम से मिलने का जरा भी मौका नहीं मिला है और यहीं से उनका विरह प्रारम्भ हो गया है। उनका हृदय उस प्रियतम के कठोर हृदय के बारे में सोचता है। उनका मन उनकी हृदय वीणा के तारों को एकत्रित कर टूटे सुख-स्वप्नों को स्मृति देकर गाने को कहता है-
'मेरी बिखरी वीणा के, एकत्रित कर तारों को,
वे सुख के सपने दे, अब कहते हैं गाने को।'
प्रिय की प्राप्ति के लिए प्रियतमा का मन तड़प रहा है, लेकिन वह अपने प्रिय से मिलन की आशा में ही जी रही है। उसने इस आशा में निष्फल स्वप्नों को घोल रखा है कि कभी-न-कभी उसे प्रिय मिलन का शुभ अवसर मिलेगा तब उसके नेत्र प्रिय के हँसते अधरों को देखकर अनमोल हो उठेंगे- .
'इस आशा से में उसमें, बैठी हूँ निष्फल घोल, कभी तुम्हारे सम्मित अधरों को वे होंगे अनमोल ।'
अपने सुनेपन में वे अपने प्रियतम को याद करती हैं और स्वयं को सुनेपन की मतवाली रानी कहती हैं। वे प्राण को दीपक की भाँति जलाना चाहती हैं-
'अपने इस सूनेपन की, मैं हूँ रानी मतवाली,
प्राणों का दीपक जलाकर, करती रहती दीवाली।'
आगे चलकर इस विरह की पीड़ा को वे आध्यात्मिक रुप प्रदान कर देती हैं तथा प्रिय के साथ तादात्म्य कर लेती हैं। अपनी पीड़ा में वे उसी को ढूंढ़ती हैं और उसमें अपनी पीड़ा को। दुख ही प्रियतम तक पहुँचने का एकमात्र साधन है-
'पर शेष नहीं होगी यह, मेरे प्राणों की क्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूंढ़ा, तुमको ढूँढूँगी पीड़ा ।'
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि उसी वेदना की तीव्र अनुभूति के कारण ही इनके काव्य में आध्यात्मिक रचना का समावेश हो गया है।
3 . प्रेम का वर्णन छायावादी कवियों का प्रेम वर्णन स्वतः अनुभूत किया हुआ प्रतीत होता है। महादेवी जी के काव्य में प्रेम है तो सही, मगर किस रुप में यह कहना मुश्किल
'तुम मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या
तारक में छवि प्राणों की स्मृति,
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पलकों की संसृति।'
इनके काव्य में प्रेम है तो सही परन्तु न तो यह भावना एकान्ततः अलौकिक है और न पूर्णतः लौकिक ।
4. अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण- महादेवी जी की अनुभूतियाँ अत्यन्त मार्मिक रुप में काव्य में प्रस्तुत हुई हैं। इन अनुभूतियों में बिल्कुल भी काल्पनिकता प्रतीत नहीं होती। इनकी अनुभूतियाँ काल्पनिकता से नितान्त अलग हैं। अत्यधिक विरह पर भी, आँखों के रोने पर भी, लोगों के हँसने का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करती हैं-
'हृदय पर अंकित कर सुकुमार
तुम्हारी अवहेलना का चोट
बिछती हूँ पथ से करुणेश
छलकती आँखें हँसते होंठ ।'
5. कल्पना का प्राचुर्य छायावादी समस्त कवियों में कल्पना का प्राचुर्य होता है और महादेवी जी भी इसके अपवाद नहीं हैं। इनकी कल्पना इतनी सुन्दर व मार्मिक होती है कि कहीं-कहीं वास्तविकता सी ही प्रतीत होने लगती है। यहाँ उनकी निम्न पक्तियों में आँसू के चार रुप चित्रों का एक साथ विधान उनकी कल्पना की अधिकता के कारण ही है जो दर्शनीय है-
'पिघलती आँखों के संदेश
आँसू के वे पारावार,
भग्न आशाओं के अवशेष
जली अभिलाशाओं के क्षार ।'
6. रहस्यवादी अनुभूतियाँ- 'छायावाद' काव्य के इस युग में रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ काफी मात्रा में हैं। हाँ, कवयित्री ने रहस्यवादी कविता की रचना की है। महादेवी ने प्रकृति में भी प्रिय की झाँकी को देखा है। इनके काव्य में अन्तिम रुप को तो हम दार्शनिक रहस्यवाद का नाम दे सकते हैं। प्रत्येक रहस्यमयी कविता में उस रहस्यमय सत्ता द्वारा रचे इस संसार को देखकर महादेवी जी का हृदय जिज्ञासा से भर उठता है और वे कहती हैं-
' और यह विस्मय का संसार
अखिल वैभव का राजकुमार,
धूलि में क्यों खिलकर नादान
उसी में होता अन्तर्धान।'
जिज्ञासा महादेवी जी के 'रहस्यवाद' का प्रथम चरण है। कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि शायद रहस्य समाप्त होने वाला है और रहस्य का यह चिर रात्रि अचिर में छिप जाना चाहती है-
'वही कौतुक रहस्य का खेल वह बन या असीम अज्ञात, हो गई उसकी स्वन्दन एक मुझे अब चकवी को चिर रात।'
7. देश-प्रेम की भावना महादेवी जी के काव्यों में देश-प्रेम की भावना भी प्रगट हुई है। उन्होंने अपने देश की हर वस्तु से प्रेम किया है चाहे वह मानव हो अथवा वन- वल्लरी। वे अपने देश के वीरों को उत्साहित करती हैं और उन्हें कहती हैं कि चाहें न हिलने वाला हिमालय भी हिल उठे, चाहे प्रलय के प्रभजन चल उठे, चारों ओर कितना भी अन्धकार क्यों न हो, आकाश चाहे कुछ भी क्यों न करे। इन सब बन्धनों को वे मोम के समान कहती हैं और इनसे अलग होकर या निडर होकर भारतीय वीरों को अपने मार्ग पर अग्रसर होने के लिए कहती हैं-
'अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले
या प्रलय के आशुओं में मौन अलसित व्योम रो ले।'
8. प्रकृति-चित्रण 'छायावाद' के कवियों में प्रकृति-चित्रण की प्रवृति समान रुप से दृष्टिगोचर होती है। महादेवी जी में मानवेत्तर का चित्रण विविध रुपों में पाया जाता है। उन्होंने प्रकृति का चित्रण आलम्बन, उद्दीपन, रम्य-पृष्ठभूमि, मानवीकरण आदि समस्त रुपों में किया है। उन्होंने मनुष्य के विभिन्न भावों को प्रकृति के माध्यम से भी व्यक्त करने का प्रयास किया है।
मानवीकरण रुप में-
'मत अरुण घूँघट खोल री।
तरल सोने से धुली यह,
पद्य रागों से सजी यह
उलझ अलकें जायेंगी
भव अनिल पथ में डोल री।'
इस उदाहरण के आधार पर हम महादेवी जी के काव्य में प्रयुक्त प्रकृति चित्रण को विभिन्न रुपों में देख सकते हैं।
9. भाषा- कवयित्री की भाषा अत्यन्त परिष्कृत, अत्यन्त मधुर व अत्यन्त कोमल है। उसमें कहीं भी कठोरता व कर्कशता नहीं है। उनकी भाषा कहीं-कहीं ऐसी प्रतीत होती है कि माधुर्व गुण की खराद परत उतार ली गई हो। भाषा को प्रतीकों, गेयता, ध्वन्यात्मकता, अलंकारों के प्रयोग द्वारा सुन्दर व सहज बनाने की चेष्टा की गई है और इसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी प्राप्त हुई है। इसके साथ ही भाषा में चित्रमयता या बिम्बों का प्रयोग भी मिलता है। लेकिन ये सब इनके काव्य में सहज रुप से स्वयं ही चलकर आये हैं। साधारण से साधारण शब्दों में गहन विचारों की अभिव्यक्ति करने में ये अत्यधिक सक्षम हैं-
चिरतृप्ति कामनाओं का
कर जाती निष्फल, जीवन,
बुझते ही प्यास हमारी
पल में विरक्ति जाती वन।'
10. प्रतीक- इनके काव्य में प्रतीकों के सुन्दर प्रयोग ने कठिन से कठिन बातों को भी साधारण रुप में व्यक्त किया है। इनकी नीहार' शीर्षक रचना में चेतना की आध्यात्मिकता के अन्र्त्तमुखी अन्तः प्रवाह को अभिव्यक्त करने हेतु सर्वत्र सांकेतिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है। इन्होंने अपने काव्य में विभिन्न प्रतीकों का सुन्दर प्रयोग किया है-
'बिखरे से हैं तार आज,
मेरी वीणा के मतवाले
तरी को ले जावो मझधार
डूबकर ही जावोगे पार ।
11. अलंकार- महादेवी जी के काव्य में जाने अनजाने अप्रस्तुत विधानों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। विभिन्न अलंकारों का सुन्दर प्रयोग आपके काव्य में मिलता है। इनके काव्य में प्रयुक्त उपमा अलंकार को देखकर हमें कालिदास का नाम स्मरण हो आता है। कहीं उपमा व रुपक एक साथ भी हैं-
'अवनि अम्बर की रुपहली सीप में
तरल मोती सा जलधि जब काँपता
तैरते घन मृदुल हिम के पूँज से
ज्योत्सना के रजत पारावर में।'
इनके साथ ही मूर्त प्रस्तुत के लिए अमूर्त अप्रस्तुत विधान भी इनके काव्य में दृष्टिगोचर होता है जिसका सुन्दर रुप हम निम्न पक्तियों में स्पष्ट रुप से देख सकते हैं- 'झंझा की पहली नीवरता सी नीरव मेरी सायें।'
12. गेयता व ध्वन्यात्मकता- महादेवी जी के काव्य में गेयता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। अधिक़तर लिखे गीतों में गेयता की ही प्रमुखता है। इनके 'यामा' में इसका उदाहरण हम देख सकते हैं, जैसे-
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
शिथिल मन धकित हुए कर
स्पंदन भी भूला जाता डर
मधुर कसक सा
आज हृदय से आज क्यों तेरी वीणा मौन ?'
सारांश यह है कि महादेवी का काव्य छायावादी नूतन काव्य धारा का मधुर संगीत है। उसमें छायावाद अपने उत्कृष्ट रुप में प्रतिष्ठित है और उसे छायावाद ने ही नई अभिव्यंजना, नई अनुभूति एवं नई भाव भंगिमा प्रदान की है। महादेवी छायावाद की अन्यतम कवयित्री हैं और उन्होंने छायावादी युग बोध, छायावादी अनुभूति, छायावादी रहस्यात्मकता, छायावादी अभिव्यंजना पद्धति आदि को पूर्णतया आत्मसात करके ही अपने सुमधुर गीतों की रचनायें की हैं। अतः आपके काव्य में छायावाद का मधुर एवं मनोहर स्वर गूंज रहा है।
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